16 अक्टूबर 2015 को रात 8:10 की ट्रेन थी। हम तीनों मतलब रविंदर, वीर बहादुर और मेरे में तय ये हुआ की सीधा स्टेशन पर मुलाकात होगी।
मेरी और रविंदर की मुलाकात केंद्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन के अंदर मुलाकात तय हुई क्योंकि हम दोनों मेट्रो का सफ़र करके निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुँचते। और वीर बहादुर सीधा ऑफिस से ऑटो लेकर आता।
रविंदर को 7 से 7:15 के बीच का समय दिया मेट्रो स्टेशन मिलने का। और वो 7:15 पर ही आया। मैं 15 मिनट पहले पहुँच गया था। और प्रतीक्षा करना मेरे लिए आसान सा काम है। बड़े फुरसत वाले इंसान है न।
रविंदर मिला फिर हमने बदरपुर वाली मेट्रो ली। जवाहर लाल नेहरू मेट्रो स्टेशन उतरे। वहाँ बाहर निकलते ही ऑटो मिला। उस से निज़ामुद्दीन चलने को कहा तो बोला 60 रूपए लगेंगे। रविंदर बैठ गया था अंदर। मैं बोला भाई मीटर से चल लो। वो बोला ख़राब है (दिल्ली में ऑटो मीटर) मंगल पर वातावरण के जैसे हमेशा ख़राब ही रहता है।
मैंने थोड़ा गुस्से में बोला कि अब जाना नहीं इसमें और ट्रैफिक कंट्रोल रूम में शिकायत करनी है। कि 3 kms से भी कम दूरी के 60 रूपए मांग रहा है। मैंने बता दिया ऑटो वाले को की मैं बहुत फुरसत में हूँ आज।
वो थोड़ा रिरियाया और बोला चलो साहब शिकायत के चक्कर में काहे पड़ना। बोला क्या दोगे। मैंने कहा 30 में जाता हूँ। बोला 40 दे देना। मैंने कहा चल।
खैर 10 मिनट में निज़ामुद्दीन स्टेशन पर पहुँच गए। मैंने उसको 50 रूपए दे दिए। और 10 रूपए वापस नहीं लिए। पता नहीं क्यों गुस्सा उतर गया था। और 10 रूपए फालतू देना बुरा भी नहीं लगा।
शायद कहीं घूमने जाने की ख़ुशी ज्यादा थी।
खैर वीर बहादुर भी स्टेशन पर मिला।
ट्रेन अपने समय पर चल दी। ठीक 8:10 पर
रविंदर घर से आलू की सब्जी अचार और पूड़ियाँ बनवा कर लाया था। दबा कर खाया। स्वादिष्ट भोजन और ऊपर से घूमने जाने की ख़ुशी। मज़ा दुगना हो गया।
मथुरा तक यूँ ही खाते पीते और मस्ती करते रहे।
उसके बाद नींद ने कब अपनी बाहों में समेट लिया पता ही नहीं चला। मेरी आँख सुबह 6 बजे खुली।
मैंने दोनों की सोते हुए फ़ोटो ली। और 6:30 पर जागे की फ्रेश हो लें वो।
7 बजे ट्रेन खजुराहो पहुँची। खजुराहो स्टेशन छोटा सा है। पर साफ़ सफाई और सुंदरता के मामले में दिल्ली से बहुत बड़ा
खजुराहो रेलवे स्टेशन से खजुराहो जहाँ western group of temples हैं की दूरी 8 kms है।
पहले मैंने यह सोचा था की यहीं स्टेशन पर फ्रेश होकर सीधा घूमने चला जाए। पर मेरे दोनों साथी बोले की रूम ले लिया जाय कहीं। मैंने कहा सोच लो थोड़ी देर। तब तक मैं कुछ फ़ोटो ले लेता हूँ।
खैर फोटोग्राफी के बाद भी फैसला कमरा लेने का हुआ। स्टेशन से बाहर निकले भी न थे की एक ऑटो वाले भाई साहब मिल गए। पूछने लगे की चलना है। मैं थोड़ा संकोच में था की टूरिस्ट्स वाला इलाका है जाने क्या पैसे माँग ले। अभी उस से बात हो ही रही थी की एक होटल वाला भी आ गया। हमें लगा को एजेंट होगा होटल का।
खैर ऑटो वाले भाई जिनका नाम शैलेन्द्र था ने 3 जनों के 60 रूपए मांगे 8 kms की दूरी के। कमाल है यार..इतना सस्ता तो दिल्ली में भी नहीं। ऑटो में हम तीन जनों के अलावा वो होटल वाला भी बैठ गया।
पूरे रास्ते बोलता रहा की होटल देख लो। न पसंद आये तो कोई बात नहीं।
खैर साहब होटल के बाहर ऑटो रुका। मैंने शैलेन्द्र ऑटो ड्राईवर को 60 रूपए दिए। उसने ख़ुशी ख़ुशी ले लिए। उसका मोबाइल नंबर भी ले लिया मैंने की कहीं जाना पड़े तो इन्हीं भाई को बुला लेंगे
कमरा देखा, अच्छा खासा बड़ा था। बिस्तर और टॉयलेट भी साफ़ सुथरे थे। 600 रूपए में बात तय हुई।
हमने सामान पटका और अपने अपने कोने पकड़ लिए। धीरे धीरे नहाने धोने का कार्यक्रम बना। नहाधोकर लगा की कमरा ठीक ही लिया।
9:30 के करीब बाहर निकले खजुराहो के पश्चिमी भाग वाले मंदिर होटल से 2 मिनट की पैदल दूरी पर थे। हम वहाँ पहुँचे।
10 रूपए प्रति जन के हिसाब से टिकट्स लीं।
प्रवेश किया। और बाईं तरफ से मंदिर देखने शुरू किये। अभी पहला मंदिर ही देखा जो की वराह अवतार का था, कि हमें समझ आ गया की यार गाइड होना चाहिए कोई जो इनके बारे में बताता रहे।
हमें पता चला की स्वचालित ऑडियो उपकरण मिल जाता है यहाँ। यदि आप गाइड न करना चाहें। उस ऑडियो उपकरण की भाषा जो आप चुनना चाहें वो रख लें और जिस स्थान पर जाएँ वहाँ की संख्या पर उपकरण के पटल जो की स्पर्श यानी टच स्क्रीन सुविधा वाला था बस टच करते ही उस स्थान के बारे में बताना शुरू कर देता था, pause repeat forward भी और कीमत मात्र 70 रूपए।
हमनें तीन लेने की सोची पर दो ही मिले क्योंकि तीसरे का हेडफ़ोन ख़राब था।
वैसे अच्छा हुआ 2 ही मिले।
खैर पश्चिमी भाग वाले मंदिर बहुत सुन्दर हैं। और भव्यता देखते ही बनती है। यदि आपको भी कोई ज्ञान न हो शिल्पकला का जैसे मुझे नहीं तब भी आप घंटों उन मंदिरों पर की गयी नक्काशी और मूर्ती कला को निहार सकते हैं।
कौन सा मंदिर कब बना और किसने बनवाया इसकी जानकारी यहाँ नहीं लिख रहा। वो जानकारी आपको कहीं भी मिल सकती है।
और मुझे इतना याद भी नहीं रखा जाता।
हर मंदिर की एक खास बात जो मैंने गौर किया वो यह है कि किसी भी मंदिर के मुख्य रूप से जो भी मूर्ती स्थापित है उसपर प्राकृतिक प्रकाश पड़ता रहता है। मने आप प्रवेश करेंगे तो पाएंगे की पूरे मंदिर में अँधेरा जैसा भी होगा तब भी गर्भगृह में स्थापित मूर्ती पर पूरा उजाला है जैसे कोई ख़ास उपकरण की सहायता से रौशनी बिखेरी गई है।
यह कोई चमत्कार नहीं, निमार्ण का उत्कृष्ट नमूना जानिये। बहुत उच्च स्तर के कारीगरी है।
हम सभी 11 बजे के करीब बाहर निकले।
सुबह नाश्ता नहीं किया था। जो की कर लेना चाहिए था।
खैर बाहर आकर परांठे खाये। थोड़ा बाज़ार में घूमे फिर सभी ने मन बनाया की पांडव गुफ़ा प्रपात घूम के आया जाए।
ऑटो ड्राईवर शैलेन्द्र को फ़ोन किया। उसने वाटर फॉल तक घुमा के लाने के लिए 600 रूपए बताये। मैंने कहा की दोस्तों से विचार करके बताता हूँ।
एक दो ऑटो वालों से पूछा पर 800 से कम किसी ने नहीं बताया।
वापस शैलेन्द्र को फ़ोन किया की भैया ऑटो लेकर आ जाओ।
वो बोला आता हूँ।
उसको खजुराहो संग्रहालय के सामने बुला लिया। और जब तक वो आये उस समय को हमने म्युज़ियम देखने में लगाया। हमने टिकट पता करनी चाही तो पता चला कि जो टिकट मंदिरों को देखने के लिए खरीदी थी 10 रूपए हर बन्दे के हिसाब से वही यहाँ भी काम करेगी।
शुक्र है रविंदर ने वो फेंकी नहीं थी।
खैर म्युज़ियम ज्यादा बड़ा नहीं था। 10 मिनट में देख डाला।
बाहर आये और शैलेन्द्र ऑटो लेकर इंतज़ार में था।
हम तीनों ऑटो में बैठ गए और पांडव गुफ़ा प्रपात का सफ़र शुरू हुआ।
हम सभी कहीं न कहीं सोच रहे थे की 600 रूपए बहुत ज्यादा हैं ऑटो के लिये। कम में बात बनती तो ठीक रहता।
खैर सफ़र लंबा था, मुख्य सड़क को नहीं चुना जो की हाईवे था जो पन्ना को जाता है, और निर्माण कार्य जोरों शोरों से चालू था पिछले कई सालों से जो आगे भी कई वर्षों तक जारी रहने का अनुमान है।
जोरों शोरों को समझिये
उस सड़क पर प्रत्येक वाहन को चलने के लिए जोर लगाना पड़ता था जरुरत से ज्यादा और वाहन कैसा भी हो सड़क पर शोर होना लाज़मी हो जाता है।
बड़े बड़े रोड़े डाले हुए हैं उस सड़क पर जिस से चलना या चलाना दोनों ही मुश्किल था।
पर ऑटो वाले भैया ने कहीं बीच का रास्ता जो की गाँवों के मध्य से होकर निकालता है को चुना
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वीर, मैं, शैलेन्द्र ऑटो वाले और रविंदर (बाएं से दायें) |
वैसे तो 35 या 40 kms का सफ़र है पर गाँव के बीच बीच से निकलते हुए सफ़र थोड़ा लंबा हो गया।
राजेन्द्र नगर के रास्ते से निकले हम। पांडव फॉल भोजपुर में पड़ता है, वहाँ तक पहुँचने के लिए हमें मुख्य सड़क तक आना पड़ा, जो की पन्ना टाइगर रिज़र्व के सामने से निकलती है।
उस सड़क पर आने के बाद ही उसके निर्माण के जोरशोर का पता चला और पता चला की ऑटो वाले भैया ने 600 रूपए कम ही मांगे।
सड़क खस्ताहाल, उस से बचने के लिए भाई ने गाँवों के बीच से निकाला ऑटो।
मात्र 4 kms का सफ़र ही किया था हमने उस जोरशोर वाली सड़क पर और शरीर का बाजा बज गया
हमें 2 घंटे से ज्यादा लगे पांडव प्रपात पहुँचने में।
वहाँ पहुँच कर टिकट ली। रिज़र्व का क्षेत्र होने के नाते उसके रखरखाव के लिए शुल्क लगाया गया है उस क्षेत्र में घूमने के लिए।
खैर साहब हम चल पड़े पैदल 600 मीटर के रास्ते पर। ऑटो बाहर ही खड़ा रहा। क्योंकि तिपहिया के 220 रूपए और देने पड़ते।
इसलिए हमने निर्णय किया की पैदल चला जाय जिससे पैसे बचें। दूरी भी 600 मीटर थी बस।
प्रपात और पांडव गुफा तक पहुँचने के लिए 294 के करीब सीढियां हैं। प्रपात की गहराई देख हम थोड़ा संकोच में पड़े की उतर जाएंगे पर वापसी में थक न जाएँ ज्यादा। 40 kms से ज्यादा का सफ़र ऑटो में करने के बाद हिम्मत थोड़ा सोचने पर मजबूर हो जाती है।
हम प्रपात में उतरे, वहाँ पहुँचने के बाद मैं बता नहीं सकता की कितनी असीम शाँति का अनुभव हुआ।
शब्द नहीं वहाँ की सुंदरता के बखान का। प्रपात से ज्यादा पानी तो नहीं निकल रहा था पर भव्यता देख अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जब पानी अपने पूरे वेग में आता होगा तो कैसा नज़ारा होता होगा।
एक सरोवर ठीक प्रपात के नीचे है, काफी बड़ा। उसका शांत ठहरा पानी ठहरने को मजबूर करता है। सरोवर के दाहिने तरफ पहाड़ी से पानी झरता रहता है, उनमें कई धार का रूप में भी गिरता है। उस धार में आप बोतल अड़ा दो तो 2 मिनट में भर जाए शुद्ध निर्मल मिनरल का पानी। उसका स्वाद अवर्णीय है।
50 मीटर के करीब का हिस्सा ऐसा है के नीचे खड़े हो जाने पर सारा भीग जाएँ। ठंडा पानी भावों की गर्मी उत्पन्न करने को काफी है। बस उसके नीचे से होकर गुजरने भर से शरीर और मन ताज़ा हो गए। हम तीनों दोस्त वहीँ बने एक चबूतरे पर आसमान के तरफ आँखें करके लेट गए।
ऊपर से बरगद या जाने कौन सी पेड़ की जटाएं लटकी हुई थीं जिनसे पानी टपकता रहता है।
थोड़ा उस पानी से बच कर लेटे।
ज्यादा देर आँखें खुली न रख पाये।
वहाँ का मनोहर वातावरण और पानी के झरने की मनभावन आवाज़ ने आँखें बंद कर दीं।
उसी अवस्था में बहुत देर तक लेटे रहे।
मन ही नहीं था की आँखें खोलें। मन थोड़ी देर के लिए विचारों से भागने लगा।
लगा जैसे नींद आ जायेगी