Monday, 9 July 2018

बड़ोग: एक भुतहा स्टेशन???

दो साल पहले बच्चों को शिमला घुमाने ले गया, शिमला जाने का कारण बस इतना था कि दिल्ली से सबसे कम दूरी पर किसी पर्वतीय स्थान तक रेलगाड़ी से आवन-जावन की सुविधा, BSNL के इंस्पेक्शन क्वार्टर में 100 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मस्त ठहरना, औऱ बच्चों के लिए toy train की मनोरंजक यात्रा। उस यात्रा से पहले यह सोचा तक न था कि कभी बड़ोग वापस आना होगा, जो कि यात्रा पूरी होने तक निश्चित कर लिया था कि बड़ोग तो आना ही होगा। क्यों?? आगे पढ़िए

कालका शिमला यात्रा में बड़ोग से जब ट्रेन गुज़री तो इस स्टेशन की सुंदरता ने मन मोह लिया, लूट लिया भरी दोपहरिया में। फिर स्टेशन के बारे में जानकारी तलाशी अंतरजाल मने इंटरनेट पर तो पाया कि एक थे कर्नल बरोग, जो अंग्रेजों के जमाने के इंजीनियर थे, इनको अंग्रेजों ने सुरंग खोदने का काम सौंपा, कर्नल बरोग ने पहाड़ के दोनों तरफ निशान लगा खुदाई करवाई, औऱ ग़लती से मिस्टेक ये हो गई कि टनल कहीं औऱ निकली, मने रूट से अलग, अंग्रेज तो ठहरे अंग्रेज, वो किसी के सगे न थे, उन्होंने अपने ही कर्नल बरोग पर उस ज़माने में 1 रुपये की भारी पेनल्टी मने ज़ुर्माना लगा दिया। इत्ते बड़े इंजीनियर पर 1 रुपये का भारी ज़ुर्माना, ऊपर से मजूरों की भी हा-हा, ही-ही, खुसर-पुसर कि साहब की वजह से मेहनत बेकार गई, अपने कर्नल बरोग भाई भी भोत बड़े वाले खुद्दार आदमी थे, ये सब बेइज़्ज़ती झेल न पाए औऱ एक सुबह अपना कुत्ता टहलाने निकले, औऱ कभी वापस न आये। अपनी पिस्तौल से ख़ुद को गोली मार ली, कुत्ते के अलावा किसी ने ऐसा होते नहीं देखा। खून से सनी उनकी लाश बरामद हुई। कर्नल बरोग जी को उसी अधूरी टनल के सामने ही सुपुर्दे ख़ाक कर दिया गया।

बरोग जी की मृत्यु के बाद सन 1900 में टनल पर फिर से काम शुरू हुआ और 1903 में टनल पूरी तरह तैयार हो गई। उस सुरंग का नाम कर्नल बारोग के नाम पर ही बरोग टनल रखा गया, जहाँ पर आज बड़ोग स्टेशन है, बरोग से बड़ोग के सफर की जानकारी मुझे नहीं, न इच्छा है। ज़्यादा तकनीकी न होकर बस इतना बताना है कि सुरंग नंबर 33 दुनिया की सबसे सीधी टनल मानी जाती है जिसकी लंबाई 1143.61 मीटर है, मने 1 किलोमीटर से भी अधिक। इस छोर से उस छोर की रौशनी देख सकते हैं आप (उदाहरण के लिए नीचे वाली तस्वीर देखिये)।

लोकल लोगों औऱ इंटरनेट की बातें मानी जाएँ तो आज भी
कर्नल बरोग की आत्मा घूमती है यहाँ, औऱ रात में सुरंग के अंदर से कराहने की आवाज़ आती है। इतनी लंबी सुरंग में अंदर पहाड़ का पानी रिसता रहता है, अगर रौशनी न हो तो खुद की साँसों की आवाज़ से ही डर जाए कोई। ऐसा पढ़ने औऱ सुनने में आया कि इस टनल के अंदर कुछ दूर चलने पर एक सुरंग है। सरकार ने उस सुरंग को बंद करने के लिये लोहे का दरवाजा भी लगाया, लेकिन एक दिन लोगों को दरवाजे का ताला टूटा मिला। तब से लेकर आज तक उसमें ताला नहीं डाला गया। (मैंने तो अंदर जाकर चेक भी नहीं किया 😀)

एक रात 11:30 से 12 के बीच मैंने कोशिश की सुरंग में जाने की, पर मेरे पास किसी प्रकार का औज़ार या हथियार नहीं था, भूतों से तो डर जैसा कुछ है नहीं (कहना पड़ता है), पर इतनी लंबी सुरंग में रात को कोई जानवर भी हो सकता था, कुछ भी, भेड़िया, तेंदुआ जंगली कुत्ता, साँप या मेरा ख़ुद का भय आदि। इसलिए सुरंग के इस छोर के बाएं तरफ से पहाड़ी स्त्रोत का ठंडा पानी बोतल में भरा, थोड़ा सा अंदर जाने के अरमानों पर डाला औऱ वापस अपने कमरे में आ गया।

अब आते हैं मेरे अनुभव पर: 
बड़ोग रेलवे स्टेशन कालका से शिमला वाले रूट पर कुमारहट्टी के बाद औऱ सोलन से पहले पड़ता है। ये स्टेशन कितना सुंदर है ये वहाँ जाकर ही जाना जा सकता है। भीड़-भाड़ से अलग, एकदम शाँत जगह। कालका से सोलन वाली बस से भी जाया जा सकता है, बड़ोग कस्बे से 4 kms आगे उतारेगा बस वाला स्टेशन के लिए, ऊपर सड़क से 5-10 मिनट में नीचे उतर कर है ये स्वर्ग। यहाँ रेलवे के हॉलिडे होम हैं, मुझे स्टेशन मास्टर ने शिवालिक डीलक्स दिया, जिसका किराया 750 प्रतिदिन था। कमरे का आकार, सफ़ाई, औऱ अंग्रेजों के ज़माने की बनावट के हिसाब से 750 रुपये बहुत कम लगे। स्टेशन मास्टर मने बड़े बाबू ने एक बात बताई कि ऑनलाइन बुक करवाने से 1 नम्बर वाला कमरा मिलता है, जिसका किराया 300 रुपये प्रतिदिन है, 2 लोगों के लिए, 3 लोग भी ठहर जाते हैं, घर जैसी बात है। अगली बार आप वही करवाना, औऱ हाँ जो शिवालिक डीलक्स कमरा आपको दे रहा हूँ उसको पाने के लिए सब तरसते हैं, वाह जी वाह, बिन माँगें मोती मिल गए।

2 रातें यहाँ बिताईं, औऱ 2 दिन पड़ा रहा इसी स्टेशन पर यहाँ वहाँ, कइयों से मित्रता हुई, औऱ बहुत देर तक स्टेशन मास्टर जी के कक्ष में बैठ रेलवे की कार्यप्रणाली देखी। देखा कैसे स्टेशन मास्टर जी सभी कार्य तल्लीनता से अपना समझ करते हैं, चाहे वो टिकट बनाना हो, या सिग्नल भेजना, फ़ोन अटेंड करना, या साफ सफाई करवाना या करना या कुत्तों को भगाना, सभी कार्य बिना किसी परेशानी औऱ झुंझलाहट के, जाने इस जगह का असर था या स्टेशन मास्टर होते ही ऐसे हैं।

इस जगह क्यों जाना चाहिए:
दिल्ली जैसी जगहों की गर्मी औऱ भीड़भाड़ से दूर एक ऐसा मनोहारी रेलवे स्टेशन जहाँ पहुँचना बहुत ही आसान है। औऱ गर्मी औऱ उमस के इस मौसम में यहाँ जाने के लिए आपको गर्म ऊनी कपड़ों का बोझ लेकर नहीं जाना पड़ेगा। यहाँ धूप में रहेंगे तो थोड़ी गर्मी लग सकती है, इसके अलावा पूरे स्टेशन पर कहीं भी, किसी छाया में बैठ सारा दिन आप अपनी मनपसंद किताब पढ़ सकते हैं।
50 रुपये की खाने की थाली में 4 या 5 रोटी, सब्जी, दाल चावल, अगर दोपहर में थाली खाने का मन न हो तो वेज बिरयानी ये भी 50 रुपये में, उम्दा स्वाद, सुबह नाश्ते में वेज कटलेट या ऑमलेट ब्रेड कॉफ़ी के संग, वो भी 50 रुपये में।

दिन में जब चाहो सामने 2 नंबर platform से छोले कुलचे, या छोले भटूरे खा सकते हैं। औऱ हाँ, पानी वही पहाड़ी स्त्रोत वाला, सुरंग के इस छोर के बाएँ तरफ, जितना चाहो, उतना भर भर पियो, ठंडा, पहाड़ी मिनरल से भरपूर पानी, वो भी मुफ़्त ☺️।
अकेले या परिवार के संग जाने के लिए बेहतरीन जगह, मैं चार किताबों, कैमरा औऱ मोबाइल के संग गया था। जिनको कुछ भी न करने का शौक़ हो, जो बिना वीडियो गेम खेले, बिना TV के घंटों पड़े रह सकते हैं उनके लिए यह जगह स्वर्ग है। औऱ हाँ अगर पड़े पड़े हाथ पैर अकड़ जाएँ तो या तो सुरंग से होकर कुमारहट्टी की ओर घूम आइये, या सोलन की तरफ रूख़ कर लीजिए, हल्की फुल्की ट्रैकिंग करने का मन हो तो 1.7 kms चढ़कर वो जगह देख आइये जहाँ कर्नल बरोग जी की सुरंग गलत दिशा में निकल गई थी, बरोग जी भी वहीं आराम कर रहे हैं अपनी कब्र में।

डिस्क्लेमर
मुझे किसी भी तरह की कराहने की आवाज़ या अजीब आभास नहीं हुए, न ही किसी आत्मा वात्मा का एहसास हुआ, वैसे मैं रात के समय तो क्या, दिन में भी सुरंग में नहीं गया, परंतु रात में कई बार उठ उठ कर बाहर बालकनी में आने पर पास में बहते पानी की आवाज़ के बावजूद एक अजीब सी शाँति को महसूस किया, जिसकी अभिव्यक्ति के लिए शब्द नहीं हैं।
आपको ख़ुद जाना होगा टनल नंबर 33 जिसे बड़ोग टनल के नाम से जाना जाता है।


पागल मन की बातें

कुछ तस्वीरें:


बड़ोग औऱ टपकता नल 😀

कुमारहट्टी की तरफ से इस पार आते एक ग्रामीण

उस छोर पर निकलता कोई यात्री



आराम फ़रमाता कुत्ता

स्टेशन मास्टर मने बड़े बाबू का कार्यालय

उस छोर से प्रवेश करती रेलगाड़ी


पास आती कालका शिमला ट्रेन

आ गई बाहर





Friday, 24 November 2017

ज़माने का साथ (होड़) अनुभव...नया बैग औऱ कपड़े

वैसे तो मैं झूठ भी बोलता हूँ, पर यह पोस्ट सत्य और स्व-अनुभव पर आधारित है, और पकाऊ भी हो सकती। 😊

1 मई 2001 (विश्व मज़दूर दिवस) को मैंने MTNL जॉइन किया, मने नौकरी में आया, नौकरी में आने का कारण सौभाग्य और दुर्भाग्य के समानांतर चलने की वजह से हुआ। जिसपर मैंने कभी अधिक सोचा विचारा नहीं। जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया.... गाने की तर्ज़ पर।

ख़ैर भैया ने बड़ा समझा के भेजा, ऐसे व्यवहार रखना है, वैसे व्यवहार रखना है, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करना, ख़ुद में रिज़र्व नहीं रहना...मेरे मार कुटाई वाले इतिहास के मद्देनज़र जो जो बातें वो समझा सकते थे कह दिए। कार्यालय जो कि जनपथ होटल की पहली मंजिल पर था, हालांकि सामने ही हमारा मुख्यालय था, पर उस सरकारी 5 सितारा होटल में किराए की जगह पर कार्यालय था मोबाइल सेवा मने बेतार सेवा का। यह पहला अनुभव था किसी इत्ते बड़े होटल में घुसने (प्रवेश) करने का। घुसते ही ठंडा ठंडा मौसम किसी हिमालय की पहाड़ी सा, भीनी भीनी खुशबू पूरी लॉबी में, बहुत करीने से साफ़ सुथरे अच्छे लिबास में लड़के और लड़कियाँ वहाँ के एम्प्लोयी थे शायद, उनके चेहरे की मुस्कुराहट हमेशा एक सी बनी रहती, मुझे बहुत अच्छा लगता, बहुत दिनों बाद समझ आया यह होटल इंडस्ट्री की ट्रेनिंग मने अभ्यास का नतीजा है, जो भी हो मुस्कुराते रहो शोरूम के पुतलों की तरह।

ख़ैर लॉबी में बहुत सुंदर संगीत धीमी आवाज़ में बजता था, इतना धीमा कि लगता था कहीं आसपास बज रहा है, पर कहाँ यह जान नहीं पाया कभी। इससे पहले मैंने मटकों में स्पीकर रख टेप-रिकॉर्डर को कई बार झनकार बीट्स वाला म्यूज़िक सिस्टम बनाया था, पर इस संगीत की बात ही कुछ और थी।

पहले हफ़्ते बड़ी झिझक रही, जब जब होटल की लॉबी में प्रवेश करता, संकोच रहता, कि कहीं से कोई टोक न दे, अबे कहाँ जाता है, अपने पहनावे से कभी मुझे झिझक न होती पर ऐसी जगहों पर जाने का अभ्यस्त भी न था, आज भी नहीं हो पाया हूँ।

तब ऐसी जगहों पर प्रवेश के सुरक्षित अधिकार के बारे में पता न था, आज पता है, पर ज़्यादा कुछ बदला नहीं, आज भी झिझकता हूँ। ख़ुद को उतने महँगे माहौल के लिए उपयुक्त पात्र नहीं मानता।

एक सप्ताह में मन औऱ मस्तिष्क दोनों अभ्यस्त हो गए उस जगह के, चेहरे जाने-पहचाने से हो गए, दुआ सलाम भी होनी आरम्भ हो गई, गार्ड भी सलाम ठोंकने लगे, तब भी ऐसे किसी से सलाम सैल्यूट की आदत न थी, असहज हो जाता था, आज भी असहजता घेर लेती है, पर आज इंसान की तरह अच्छे से अभिवादन करता हूँ, पूरी कोशिश रहती है सैल्यूट करने वाले के नाम को याद रखूं और जी लगाना न भूलूँ।

21 साल का था मैं, शादी मेरी 1 साल पहले मने 20 वर्ष की आयु में हो गई थी, बालविवाह का कारण पिताजी के गले का कैंसर था, आख़िरी अवस्था का। जैसा कि हमारे जैसे प्रत्येक परिवार में सोचा जाता है कि बड़े-बूढ़ों के रहते विवाह संस्कार हो जाये, मेरे लिए भी वैसा ही सोचा गया।

संयुक्त परिवार के चार भाइयों, औऱ 3 बहनों में सबसे छोटा मैं ही था, बाक़ी सबका विवाह बाबू जी और चाचा जी करवा चुके थे।

21 साल की उम्र का मतलब था मुझे किसी भी प्रकार के अनुभव का बहुत अल्प ज्ञान, न पहनने ओढ़ने का सलीका (जो आज भी नहीं आया), न कार्यालय पद्धति का ज्ञान, बोलचाल भाषा प्रयोग, कुछ नहीं। सब सीखा, मुझे अच्छे लोग बहुत मिले, फिर चाहे मेरे इकाई अधिकारी हों, या मेरे वरिष्ठ सहकर्मी, सभी ने मुझे सिखाने में कोर-कसर बाक़ी न रखी।

पर सीखने की प्रक्रिया तो मेरे दिमाग़ में भी सतत चल रही थी। मैं जहाँ से जो होता सीखता जाता था, अच्छा बुरा-सोचने का अवसर और ज्ञान नहीं था। यहाँ से दुनिया को देखने की आदत सी पड़ती गई, इससे पहले दुनिया शायद मुझे देखती थी, शायद, पर अब मैंने दुनिया को देखना आरम्भ कर दिया था।
पर कमाल यह था न दुनिया ने यह जाना, न मुझे इसका एहसास हुआ, कि मैं दुनिया को देख-देख, कुछ-कुछ सीख रहा हूँ।

उसी सीखने का नतीज़ा यह हुआ कि मैं सोचने लगा कि ऐसे कपड़े पहनने चाहिए, ऐसी बेल्ट हो, जो पेन मैं पैंट की पीछे वाली जेब में रखता था हमेशा पर्स के संग अब वो मेरी कमीज़ की जेब में पहुँच चुका था, मैं क्लर्क बन गया था भई, 9000 रुपये, 2001 में तनख्वाह मिलने वाली थी।

बड़ी ख्वाहिशें कि ऐसे जाएँगे बनके ऑफिस, एक लाल रंग का फ़ोल्डर टाइप बैग था, बाबू जी का दिया हुआ, आज भी है, उसी बैग को रोज़ बग़ल में दबा कार्यालय जाना, Blue Lineबसों, तो कभी DTC बसों के पीछे दौड़ लगाना, और ड्राइवर का एहसान से करके कभी कभी बस स्टैंड पर रोक देना, और जनपथ के अपने उस कार्यालय पहुँच कर पहले पसीना सुखाना, बाल सही करना, जूते जो काले से मटमैले हो चुके होते थे उनको पैंट ऊपर करके ख़ुद की जुराबों से पोछना, न जाने क्या क्या सीखता जा रहा था।

फ़ोल्डर टाइप के बैग के दिन कुछ दिन में पूरे हो गए, मने अब मुझे कुछ और बेहतर, ज़माने के हिसाब से चाहिए था, कदम से कदम मिलाने का मन था, जनपथ में कार्यालय होने के चलते CP, शंकर मार्किट, पालिका बाज़ार जाने पर महसूस होता था कि दुनिया बहुत आगे और मैं बहुत पीछे था, मुझे अपनी गति बढ़ानी थी, गति बढ़ाने के लिए जो मैंने सीखा वो यह कि पुराने से बैग से गति नहीं बढ़ेगी, नये ज़माने का बैग लेना होगा, जी तो मैंने भी शंकर मार्किट के फुटपाथ से बैग ख़रीदा, अब  भी गति नहीं मिली, कुछ कपड़े कमला नगर मार्किट से लिये, ताकि कदम से कदम मिला लूँ, जैसे तैसे संकोच के संग नए कपड़े पहन मैंने चलना सीखा उस भीड़ में, भीड़ का हिस्सा होने के लिए, आगे नहीं, साथ चलने के लिए। आगे निकलना मेरा कभी भी मक़सद न रहा

Friday, 15 September 2017

अंडमान यात्रा, प्रथम अध्याय



8 जुलाई 2017 की सुबह दिल्ली के T3 terminal ठीक 7:31 पर विस्तारा का हवाई जहाज उड़ गया कोलकाता के लिए, और दिल्ली दूर होती चली गई।

सुबह के 9:26 जहाज ज़मीन पर उतरा, कोलकाता के हवाई अड्डे को पहली बार देखा। कोलकाता में कोई रुचि न थी, मन में अंडमान के द्वीप घूम रहे थे। पहली बार इतनी ऊँचाई से गहरे सागर से घिरे हुए द्वीपों को देखने की इक्षा इतनी प्रबल थी कि कोलकाता एयरपोर्ट पर रुकना पल पल भारी सा लगा।

कोलकाता हवाई अड्डे से फ्लाइट ठीक 10:27 पर उड़ चली। अभी तक मुझे खिड़की वाली सीट न मिली थी, मने दिल्ली से कोलकाता का सफ़र बस पढ़ते हुए बीता। कोलकाता से उड़ान भरने से पहले ही मैं खिड़की को तरफ़ बैठ गया, ये सोच कर की कोई आएगा तो उठ जाऊँगा। अपनी इस सोच पर हँसी आई। जैसे बस में सफर कर रहा होऊँ 😀, ख़ैर शुक्र ये रहा कि कोई आया नहीं, औऱ लोगबाग भी कम ही रह गए थे, कोलकाता से कुछ लोग ही चढ़े थे।
मैं फ़िर से उड़ चला था अनजाने द्वीपों की तरफ़। अभी द्वीप आने में देर थी, अपने अगल बग़ल ध्यान दिया, एक सीट छोड़ कर, एक भाई दिखा, एकदम स्टाइलिश, मतलब मैं 80 के दशक की उपज, तो तो 90 का, मेरी जवानी जा चुकी है, उसकी आ रही थी। कपड़ों से एकदम ढिंचाक। नए ज़माने की P कैप, उसपर मस्त स्टाइल वाले गॉगल्स, पल में ही सोच लिया, कि भैया अपना मेल नहीं।
फिर थोड़ी देर में ही खाना पीना देना शुरू किया विस्तारा वालों ने, मुझे लगा कि दिल्ली कोलकाता के बीच मुझे खिला चुके हैं, अब मेरा नंबर नहीं लगेगा, जो लोग कोलकाता से चढ़े हैं उन्हीं को मिलेगा भोजन पानी, अपनी इक्षाओं को खिड़की की तरफ़ मोड़ दिया, उस तरफ़ देखना भी नहीं चाहता था जहाँ सब भकोस रहे होंगे, और मैं नहीं।

मेरे कानों में मिश्री घुली उसी वक़्त सर व्हाट वुड यू लाइक टू हैव, वेज नॉन वेज...हैं....यक़ीन नहीं हुआ, ऊपर से अंग्रेजी बोलती हुई सुंदर स्त्री, समझ से परे था मुआमला, पर हिम्मत जुटा कर खिड़की से नज़र उसकी नज़रों की तरफ ले गया, जी कुछ कहा, मेरे हुक्के से मुँह को देख समझ गई, देसी है। सर आप क्या खाना पसंद करेंगे, कुछ भी, बस नॉन-वेज न हो, वो क्या समझी, क्या सोचा बिना इसको जाने मैंने पूछा क्या है, उसने अंग्रेजी में जो बड़ा बड़ा सा बोला, मैं समझा क्या मस्त चीज़ होगी यार।

थोड़ी देर में आलू की टिक्की, और सफेद वाले मटर वाली सब्ज़ी के संग पैक्ड अवस्था में दे गई, और भी बहुत कुछ साथ था, सबकी क़्वालिटी बहुत उम्दा थी, स्वादिष्ट भी, पर मन में ख़याल थे कि भाई सीधा सीधा आलू की टिक्की भी तो बताया जा सकता था।
ख़ैर दुनिया की माया, अपुन समझ न पाया।

खाना पेट में अच्छे से पहुँच गया, जब ये पक्का हो गया, तो हाथ धोने का मन हुआ, उठा, और उस जवान लड़के से एक्सक्यूज़-मी के संबोधन से बात आरम्भ हुई, कि भाई जगह दो, हम वाशरूम हो आएँ।
वापस आने पर नौजवान को सॉरी बोला, क्योंकि उसके कानों में earphone लगा हुआ था, ज़ाहिर है मेरी आवन-जावन से उसके संगीत में ख़लल पड़ी थी, पर मेरे सॉरी को बड़ी विनम्रता से स्वीकार करके उसने अपने स्वभाव के अच्छे होने का पहला परिचय दिया।

नाम सूरज बताया उस लड़के ने, पूरा नाम B. Suraj, पहला प्रश्न, अंडमान घूमने जाते आप?? हाँ, दूसरा प्रश्न: अकेले?? हाँ, इस दूसरे प्रश्न के उत्तर को थोड़े मुश्किल से हजम किया भाई ने, अब भला दिल्ली से अंडमान जैसी दूरस्थ जगह कोई अकेले जाता है, जाता है भाई, घुमक्कड़ फक्कड़ जाता है।

पहले दूसरे प्रश्न के बाद इधर उधर से सवालों की बौछार हुई और अंजाने-पन भाई का वध हो गया उसी बौछार से। अबतक वो मेरे बारे में, मैं उसके बारे में बहुत कुछ जान चुके थे। वो सबकुछ जो यहाँ इस फेसबुक जैसे मंच पर जानने में कई साल लग जाते हैं कभी कभी।

टूर मैनेजर हैं भाई, पता चला, लो जी, जानकारियाँ ले लो, मन में आया, फिर लगा कि यार मैं घुमक्कड़ी करने निकला हूँ, घुमक्कड़ हूँ, पर्यटक बनने का काहे सोच रहा हूँ?? ख़ैर कई जानकारियाँ मिलीं। बहुत मिलनसार, मददगार स्वभाव का लड़का है। स्टाइल से नहीं लगता था। इसलिए कहा गया है पूर्वाग्रह ठीक नहीं अधिकतर 😊♥😊

#पिक्चर_अभी_बाक़ी_है_दोस्तों .......




Friday, 7 October 2016

दक्षिण यात्रा....एक स्वप्न जो पूरा हुआ। भाग-1 (यात्रा से पहले)



दक्षिण यात्रा से पहले और यात्रा वाले दिन की कहानी 😊

ये यात्रा महज एक यात्रा नहीं रही, यह एक सपना थी, मेरा वो सपना जो हक़ीक़त बनके मेरे सामने आया। और आया भी अचानक, बिना किसी पूर्व नियोजन (planning) के।

दक्षिण घूमने का मन कई बार हुआ, यूँ तो एक बार बैंगलोर की ट्रेन की टिकट्स भी करवा लीं थी इस वर्ष पर किन्हीं विशेष कारणों के चलते वो आरक्षण रद्द करवाना पड़ा।

ख़ैर 25 अगस्त 2016 के दिन श्री कृष्ण जन्माष्टमी के उपलक्ष्य में सरकारी अवकाश था, और अक़्सर छुट्टी वाले दिन भी घर में न रहने वाला रवि यानी मैंने सोचा की यार आज कहीं नहीं जाऊँगा।

सुबह से बिना नहाये धोये लेटा हुआ रेडियो पर गाने सुनता हुआ आलस को अच्छे से महसूस करते हुए, मोबाइल उठाया, और फेसबुक पर लॉगिन किया, और जैसे ही FB खुला सामने स्पाइस जेट की सस्ती हवाई टिकट्स ऑफऱ दिखा।

न जाने अंदर से आवाज़ आई की रवि चल। करवा ले बुकिंग।

पैसों की समस्या ने भी ठीक उसी समय आलस में ही सही पर बड़ा सा मुँह बाया और जैसे चिढ़ाया मुझको।

तभी दिमाग के घोड़े दौड़ते हुए क्रेडिट कार्ड का उपाय साथ लेकर आये। और मुझे जैसे बावरापन सा सवार हो गया।

यात्रा का अचानक ऐसे विचार आना और तुरंत उसपर अमल करने में अक़्सर मैं किसी से पूछता नहीं, फिर भी जाने मन हुआ की अपने एक अभिन्न मित्र से पूछ लूँ।

ख़ैर साहब उनको फ़ोन लगाया, अपना सब प्लान बताया कि कैसे मैं 9 सितंबर 2016 दिन शुक्रवार शाम को निकलने का सोच रहा हूँ दिल्ली से और 18 सितंबर की वापसी का समय तय किया है।

9 सितंबर को जाने का तय करने के पीछे एक कारण था, 10 को महीने का दूसरा शनिवार था, जो अवकाश रहता है।
फिर रविवार, उसके बाद 12 को ईद के मौके पर सरकारी अवकाश।

इन 3 दिनों का सदुपयोग करना चाहता था आगामी यात्रा के लिए।

पर साहब जिसका भय था वही हुआ, उस मित्र ने अपनी ड्यूटी के चलते दिल्ली से निकलने के दिन को आगे बढ़ाने की बात कही, जो की संभव नहीं था।

मैंने सोचा की चेन्नई की बुकिंग करवाऊंगा, और इसको बोलता हूँ की तू उसके दो दिन बाद कन्याकुमारी मिल।

पर सोचा हुआ अक़्सर तब नहीं होता जब उसको करने न करने में कोई और भी शामिल हो।

बात नहीं बनी, एक बार फिर से हमेशा की तरह मुझ अकेले की यायावरी के मार्ग बन गए 😊

श्री कृष्ण को यही मंजूर था कि उनके जन्मदिवस के पावन मौके पर मेरे घूमने का नियोजन हो, और हुआ, टिकट्स हो गईं।

मन बल्लियों उछल रहा था

जाने की टिकट दिल्ली से चेन्नई तक करवाई

वापसी की बैंगलोर से दिल्ली, एक अर्ध वृत्त बनाया घूमने के लिए।

चेन्नई से कन्याकुमारी, कन्याकुमारी से त्रिवेंद्रम, त्रिवेंद्रम से मुन्नार, मुन्नार से मैसूर, मैसूर से बैंगलोर और बैंगलोर से दिल्ली को 18 सितंबर 2016 को वापसी।

चेन्नई घूमने का मन नहीं था, किन्तु मथुरा भैया (चाचा जी के छोटे बेटे) से मिलने का बहुत मन था। वो वहीँ पर जॉब करते हैं।

9 सितंबर को शाम 6 बजे की फ्लाइट थी, भैया ने 15 मिनट में एयरपोर्ट छोड़ा दिया 😊।

6 बजे की फ्लाइट अपने समय से उड़ी, ये समय बड़ा मायने रखता था मेरे लिए, क्योंकि ऐसे समय में आसमान की ऊँचाइयों से सूर्यास्त देखने का मौका मिलता है।

बोर्डिंग पास लेने के वक़्त हमेशा की तरह एयरलाइन्स वालों से प्रार्थना की खिड़की वाली सीट दे दो।
हवाई यात्रा कई बार कर चुका हूँ, किन्तु खिड़की की तरफ बैठना और जहाज़ से बाहर निहारना हमेशा ही अच्छा लगता है।

मेरे कुछ जानकार और मित्रों कहना है कि उन्होंने इतनी यात्राएं कर ली हैं कि अब मन नहीं होता खिड़की से झाँकने का।
ख़ैर उनका मन है, जैसा महसूस करें।

पर मुझमें वो बच्चों जैसी जिज्ञासा और उत्सुकता सदैव रहती है, जिसके चलते मैं ऐसा करता हूँ। हम रोज ही रात को तारों भरा आकाश देखते हैं, और दिन में बादलों के खेल, वो भागाभागी करते, अजब गजब चित्र बनाते हुए, क्या कभी इनसे मन ऊबता है????

ऊबता होगा किसी का, मुझे बहुत भाता है।

नीला आसमान, नीचे बादलों के सुन्दर कालीन दिन में, गहरा अँधेरा, काली चादर में चाँदी की जरी से सितारे रात में आसमान पर, और शहरों कस्बों की टिमटिमाती रौशनियाँ दूसरे आकाश का आभास सा करवाती हुई हवाई यात्रा में कोई कैसे न खिड़की पर बैठे।

मुझसे नहीं होता कि ये प्रकृति और विज्ञान के मिलन से उत्पन्न सुन्दर संयोग में मोबाइल या लैपटॉप पर कोई मूवी देखूँ, गाने सुनूँ या गेम खेलूँ।

ख़ैर मुझको खिड़की की सीट मिल जाती है हर बार 😊😊😊

इस बार भी मिल गई
और मैं खो गया उस आसमान में, वो दूर अपने बराबर या नीचे क्षितिज पर सूर्य को अस्त होते हुए देखना, और सूर्यास्त के बहुत बाद तक रौशनी के वो खेल, बादलों के संग मिलके जैसे किसी चित्रकारी प्रतियोगिता का आयोजन करना आसमान का.....उफ़्फ़

कैसे लोग जो ऊब गए हैं। उनको खुद से प्रश्न करना होगा, जी रहे हैं क्या मरने से पहले या रोज रोज मर रहे हैं मरने से पहले???

फ्लाइट दिल्ली से 6 बजे चलकर 8:30 पर चेन्नई पहुँच गई।
सुन्दर एहसास चेन्नई शहर को रात के अंधेरे में टिमटिमाता हुआ, झिलमिलाता हुआ, झगमगाता हुआ देखना।

कुछ तस्वीरें:



ऐसे जैसे धूप खुद से आई हो होंठों को छूने

चेन्नई शहर रात की चादर में जैसे किसी ने सुन्दर ज़रदोज़ी की हो


 



चेन्नई हवाई अड्डे के अंदर











Thursday, 10 December 2015

खजुराहो यात्रा, भाग: 2


पांडव प्रपात से हमने प्रकृति का शुद्ध जल अपनी बोतल में भरा और वापस जाने के लिए सीढ़ियों को देखा लगा कि यार जितना आनंद और सुकून यहाँ रहा अब सीढ़ियां चढ़ने में पता चलेगा।

खैर जितना हमें लग रहा था उतना मुश्किल नहीं रहा उन सीढ़ियों पर ऊपर जाना।
शायद उस स्थान पर बिताये हुए अच्छे और स्फूर्तिदायक पलों की वजह से शरीर और मन दोनों ही तरोताज़ा हो गए थे।

हम लोग ऊपर पहुँचे। ऊपर चंद्रशेखर आजाद जी की मूर्ती स्थापित है। और पांडव प्रपात का ऐतिहासिक महत्व लिखा हुआ है, भारत की आज़ादी की लड़ाई के सन्दर्भ में इतिहास में 4 सितम्बर 1929 को इस स्थान पर क्रांतिकारियों की बैठक हुई थी। जिसके अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद जी थे।
सोच कर भी अजीब सा एहसास जागृत हो जाता है की क्रांतिकारियों का जज़्बा क्या रहा होगा जो ऐसे वीराने और भयंकर जंगल में बिना किसी खास सुविधाओं के बैठकें करते रहे होंगे। यदि आज से तुलना की जाय उस वक़्त की तो उस समय तो यह स्थान दुर्गम स्थानों की श्रेणी में ही रहा होगा।

जज़्बे को सलाम है।

खैर वापस हम लोग 600 मीटर की उस सड़क पर मस्ती करते हुए चल दिए। फ़ोटो खींचे गए सबकी मर्ज़ी के हिसाब से, कुल मिला कर बहुत ही अच्छी दोपहर और शाम बीती।

वापस आये तो ऑटो वाले भैया मुस्कुराते ही मिले। चेहरे पर कोई तनाव या झल्लाहट नहीं कि गधों कितना समय लगाया।
संतुष्टि बड़ी चीज़ है। चाहते और कहते सब हैं, मिलती किसी किसी को है। हालाँकि हासिल खुद ही करना है। दे कोई नहीं सकता।
खैर हम तीनों उनके ऑटो में बैठ गए और सवारी चल पड़ी वापस खजुराहो की तरफ।

रास्ते भाई अगले दिन और शाम का प्रोग्राम बनाते रहे। सारा जीवन हम प्रोग्राम ही बनाते रहते हैं, और उस प्रोग्राम से इतर कुछ भी घटित होना हमें पसंद नहीं।

सब बातों व घटनाओं पर हम खुद का नियंत्रण चाहते हैं।
यही संतुष्टि की राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होता है।

केन नदी के पुल पर खड़े होकर अस्त होते सूर्य को देखना बहुत गजब का एहसास था। कइयों के लिए यह एडवेंचर, कइयों के लिए बस रोज घटित होती घटना, कइयों के लिए फ़ोटो के लिए बेहतरीन क्षण, मेरे लिए क्या था मैं उसका शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता।
कुछ मेरे अंदर में उतरता सा मालूम पड़ता है। हमेशा जहाँ भी सूर्यास्त देखता हूँ।
केन नदी के पुल के ऊपर से वो दृश्य बहुत से एहसास दे गया।

वहाँ से आगे बढे, 4 या 5 kms के बाद जहाँ से मुख्य सड़क छोड़ कर हमें गाँव के बीच वाले रास्ते पर उतरना था, बस वहीँ कोने पर मुझे चाय की दुकान दिख गई। मैंने ऑटो रुकवा दिया। चाय की दुकान बस वैसी ही थी जैसे किसी पिछड़े गाँव देहात के चौराहे पर होती है...
चूल्हा मिट्टी का, काला पड़ चुका चाय बनाने वाला बर्तन, उसके बगल में चाय लिए और इंतज़ार में केतली, ऊपर कचरी पापे और रस की धूल से ढकी पिन्नियां,
एक कढ़ाई जिसका रंग ब्लैक होल से भी काला, उसमें जाने कौन सा तेल जल कर लालिमा लिए हुए, और बगल में समोसे पड़े हुए जो आकार से समोसी नाम की गरिमा बढ़ाते हुए।

खैर दुकान जैसी भी रही हो, मैंने वहाँ चाय पीने का मन बना लिया था, 4 चाय का आर्डर दिया, चाय बनने में ज्यादा समय नहीं लगा, हाथ में चाय आई तो उन समोसियों ने बड़ी आस के साथ देखा, मैंने भी कहा कि जैसी भी हो तुम, मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। और 2 उठा ली खाने को, रविंदर भी लालायित हुआ, उसने भी भोग लगाया, मैंने ऑटो ड्राईवर शैलेन्द्र से कहा की भैया आप भी लो, वो माने और उन्होंने भी समोसों का आनंद लिया, दुकान का रंग रूप जो भी रहा हो, समोसे स्वादिष्ट थे, या भूख के कारण लग रहे थे, इसका निर्णय अभी तक नहीं कर पाया।

वहाँ से चाय की च्यास मिटा कर हम सभी ऑटो पर सवार होकर खजुराहो के तरफ निकले।
खजुराहों पहुँचते पहुँचते शाम के 7 बज गए, अँधेरा हो गया था, सोचा की लाइट & साउंड शो देखेंगे, पर सोचा हुआ सदैव पूरा नहीं होता।

खजुराहो में प्रवेश करते ही फिर से च्यास लग गई, शैलेन्द्र ने बताया की यहाँ चाचा जान की मशहूर चाय मिलती है, हम सभी ने मशहूर शब्द को गंभीरता से लिया और चाचा जान को भी।
ऑटो सीधा चाचा की चाय की दुकान के सामने रुका, जो की खजुराहो में प्रवेश करते ही है, पूर्वी परिसर से 2 km पहले सड़क के किनारे ही।

दुकान जो कि दुकान कम और खोखा ज्यादा थी, अँधेरे से सराबोर, भंगेडियों का अड्डा सी जान पड़ी, मशहूर शब्द से कसम से विश्वास ही उठ गया, पर जब रुके ही हैं तो चाय तो पीनी बनती थी, यात्रा का यही आनंद है, कुछ निश्चित नहीं।

60 से 70 साल के चाचा थे, चचा जान थे, ईश्वर उन्हें दादा परदादा बनाये, वो चाय बनाने में ऐसे तल्लीन दिखे जैसे कोई माँ अपने नवजात शिशु की तेल मालिश कर रही हो, किसी के आने से बेख़बर, किसी साधू की तरह समाधी में मस्त, हमने चाय के लिए बोल कर समाधी में व्यवधान डाला, चचा बड़े निश्चिन्त भाव से बोले कुछ नहीं, बस सर हिला कर, नज़रों से इशारा किया की हुज़ूर दिल्ली वालों तशरीफ़ रखो।हम सभी बैठने के लिए स्थान तलाशते उस से पहले वहाँ उपस्थित उनके रोज के बूढ़े ग्राहकों ने अपनेपन का परिचय देते हुए कुर्सियां खाली करके हमें बैठने का आग्रह किया, अजीब लगा, किन्तु उनका आग्रह टाला नहीं, बैठ गए, मद्धिम से प्रकाश में कीट पतंगे हमसे अटखेलियां सी करने लगे, हमने भी उन्हें शोहदों सा सम्मान दिया, मने नज़रअंदाज़ किया, जैसे आने जाने वाली नवयुवतियां गली के लुच्चों के साथ करती हैं, तकरीबन 15 मिनट के बाद मशहूर चाय बनी, लगा जैसे चचा की समाधी पूरी हुई, तेल मालिश ख़त्म।

यहाँ एक बात कहना चाहूँगा, चाय पीकर ज़रा भी अफ़सोस न हुआ वहाँ रुकने का, और इंतज़ार करने का।

चाय वाक़ई में गजब स्वाद लिए हुए थी, सच में लाज़वाब।
वैसी चाय और बनाने वाला दोनों ही संसाधनों की कमी के होते भी मशहूर हुए बिना नहीं रह सकते हैं।

चाय का स्वाद लिया, धन्यवाद पैसों के संग दिया और खजुराहो बाज़ार की तरफ हो लिए

बाज़ार पहुँचें तो सभी ने अगले दिन पन्ना टाइगर रिज़र्व जाने का प्लान बनाया, मैं थोड़ा सा संशय में था जाने के क्योंकि मुझे पता था की अभी 16 तारीख को ही रिज़र्व आम जनता के लिए खुला है, और अभी टाइगर दिखने की सम्भावना न के बराबर थी, क्योंकि सर्दियाँ अभी कायदे से प्रारम्भ नहीं हुई थी ऐसे में टाइगर के दिखने की सम्भावना कम थी, मुझे लगा की मित्रों को टाइगर नहीं दिखा तो कहीं मायूसी यात्रा का मज़ा न किरकिरा कर दे, फिर भी जो जैसा की तर्ज़ पर होने दिया और सफारी के लिए जीप बुक कर दी, 2000 हज़ार में बात तय हुई, यही रेट हैं मारुती जिप्सी के खजुराहो से पन्ना टाइगर रिज़र्व घुमा के लाने के। जीप मिलने में दिक्कत न हो इसके लिए ऑटो ड्राईवर शैलेन्द्र ने हमारी मदद की। और अगली शाम रिज़र्व से वापसी पर मिलने का वादा करके वो चले गए, हम तीनों मित्र बाज़ार में घुमते रहे, कुछ तलाशते रहे जो की नहीं मिला।

हॉटेल के कमरे में आये, थके थे, और थकान मिटाने का साज़ों सामान वीर बहादुर भाई साथ लेकर आये थे, तो महफ़िल सज गई, बकलोली होती रही, पर विकटें नहीं गिरी, हाँ पारी लंबी चली, इतनी लंबी की खाने का जब होश आया तो पता चला की अब शायद खाना न मिले कहीं।

होटल जिसमें ठहरे थे वहाँ कुछ था नहीं खाने को तो बाज़ार व रुख किया, वहाँ जगह जगह रामलीला का मंचन चल रहा था, उम्मीद जगी की भोजन मिल जाएगा, एक रेस्टोरेंट पर गए, वो लोग सामान समेट कर खुद ही खाने में लगे थे, पर अथिति देवो भवः

उन्होंने हमें बैठने को कहा और यथासंभव भोजन बना कर लाये, हमने किया की नहीं याद नहीं, पर पैसे पूरे चुकाए और चल दिये कमरे की तरफ़।

सुबह जल्दी जागना था

खैर सुबह जल्दी जाग गए सभी बंधू, नहा धो कर तैयार हुए, पानी की बोतलें भरी, और होटल के नीचे उतरे, जीप वाले भैया ठीक 5 बजे प्रातः आ गए। और हम सभी टाइगर रिज़र्व की तरफ़ चल दिए, अँधेरे में सड़क पर केवल जीप की रौशनी का सहारा था, सड़क बहुत अकेली सी थी, सब साथ के लिए, सबके लिए फिर भी तन्हा

ठीक 6 बजे हम रिज़र्व पहुँचे और गाइड किया, रिज़र्व के प्रवेश के लिए और गाइड जो की अनिवार्य है दोनों का शुल्क चुकाया, 1600 रुपयों के आस पास था। और हर हर महादेव का उदघोष करते हुए टाइगर रिज़र्व में बाघ दिखने की आशा में प्रवेश किया

पन्ना टाइगर रिज़र्व में विभिन्न प्रकार की किस्में हैं पेड़ों की, किन्तु तेंदू पत्ते वाले पेड़ बहुतायत में हैं।

बस अब इन्हीं पेड़ पौधों का सहारा था मुझे तो, बाकी दोनों मित्रो को बाघ दिखने की आशा थी

मुझे उस जंगल का नितांत वातावरण मोहित किये हुए था, उसकी ख़ामोशी को मैं अपने अंदर गहरे में उतार लेना चाहता था, पर असफल रहा हमेशा की तरह। पर जितना भी महसूस किया, वो गजब था।

यहाँ से वहाँ घुमते रहे, बहुत से जानवर दिखे, हिरन भालू चीतल, सियार, जंगली कुत्ते, पर वो जालिम नहीं दिखा जिसकी चाहत थी, चाहते अक़्सर अधूरी रह जाती हैं, इसी अधूरेपन में ज़िन्दगी पूरी करनी पड़ती है, यात्रा का आनंद इसी अधूरेपन में है यदि कोई ले सके, समझ सके

कमबख्त टाइगर नहीं दिखा, एक दिन पहले दिखा था अपने परिवार के साथ, रिहाइशी इलाके की तरफ वाली सड़क के बीचों बीच महफ़िल जमाई थी, बड़ी देर के बाद जंगल की तरफ गया, ऐसी सूचना हमें गाइड ने दी, और जहाँ जहाँ कॉल होती रही टाइगर की वहाँ वहाँ जिप्सी को ले जाते रहे गाइड और ड्राईवर, कॉल का मतलब जंगल में बाकी छोटे मोटे जानवरों की उन आवाज़ों से है जो वो टाइगर को देखने पर निकालते हैं, गाइड पहचान जाता है अपने अनुभव से, थोड़ी देर बाद हम भी अनुभवी होने लगे थे, पर अनुभव जो समय के साथ आये वही काम आता है।

टाइगर नहीं दिखा

और हम दोपहर 12 बजे तक जंगल से बाहर आ गए, सीधे खजुराहो गए, जिप्सी वाले ने बाज़ार में ड्राप किया, हमने ऑटो वाले को फ़ोन किया, पर क़ो एअरपोर्ट गया हुआ था, उसने किसी दुसरे ऑटो वाले को भेजा, उस से बात तय हुई की हमें पश्चिमी भाग वाले और दक्षिणी भाग वाले मंदिरो को दिखायेगा, फिर स्टेशन ड्राप करेगा।

बात तय हो गई, हमने मंदिर देखे, शाम को स्टेशन पहुँचें और प्लेटफार्म के अंतिम छोर पर जहाँ कुछ कुत्तों के अलावा हम कुत्ते थे, महफ़िल जमाई, समझ गए न???
ट्रेन चलने में जो समय बचा था उसका सदुपयोग बचे हुए साज़ो सामान को ख़त्म करने में लगाया।

बस क्या बताऊँ की कितना आनंद आया....


यात्रा हमेशा बहुत से अनुभव देकर जाती है, हम भी अपने अपने अनुभवों के साथ ट्रेन पर सवार हुए, और बतियाते बतियाते कब खाये पिए और कब सो गए पता ही नहीं चला।
और सुबह सुबह दिल्ली आ गए...


इस वादे के साथ की यात्राएं चलती रहेंगी सभी को नमन

Tuesday, 27 October 2015

खजुराहो यात्रा भाग: 1

16 अक्टूबर 2015 को रात 8:10 की ट्रेन थी। हम तीनों मतलब रविंदर, वीर बहादुर और मेरे में तय ये हुआ की सीधा स्टेशन पर मुलाकात होगी।
मेरी और रविंदर की मुलाकात केंद्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन के अंदर मुलाकात तय हुई क्योंकि हम दोनों मेट्रो का सफ़र करके निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुँचते। और वीर बहादुर सीधा ऑफिस से ऑटो लेकर आता।

रविंदर को 7 से 7:15 के बीच का समय दिया मेट्रो स्टेशन मिलने का। और वो 7:15 पर ही आया। मैं 15 मिनट पहले पहुँच गया था। और प्रतीक्षा करना मेरे लिए आसान सा काम है। बड़े फुरसत वाले इंसान है न।

रविंदर मिला फिर हमने बदरपुर वाली मेट्रो ली। जवाहर लाल नेहरू मेट्रो स्टेशन उतरे। वहाँ बाहर निकलते ही ऑटो मिला। उस से निज़ामुद्दीन चलने को कहा तो बोला 60 रूपए लगेंगे। रविंदर बैठ गया था अंदर। मैं बोला भाई मीटर से चल लो। वो बोला ख़राब है (दिल्ली में ऑटो मीटर) मंगल पर वातावरण के जैसे हमेशा ख़राब ही रहता है।
मैंने थोड़ा गुस्से में बोला कि अब जाना नहीं इसमें और ट्रैफिक कंट्रोल रूम में शिकायत करनी है। कि 3 kms से भी कम दूरी के 60 रूपए मांग रहा है। मैंने बता दिया ऑटो वाले को की मैं बहुत फुरसत में हूँ आज।
वो थोड़ा रिरियाया और बोला चलो साहब शिकायत के चक्कर में काहे पड़ना। बोला क्या दोगे। मैंने कहा 30 में जाता हूँ। बोला 40 दे देना। मैंने कहा चल।
खैर 10 मिनट में निज़ामुद्दीन स्टेशन पर पहुँच गए। मैंने उसको 50 रूपए दे दिए। और 10 रूपए वापस नहीं लिए। पता नहीं क्यों गुस्सा उतर गया था। और 10 रूपए फालतू देना बुरा भी नहीं लगा।
शायद कहीं घूमने जाने की ख़ुशी ज्यादा थी।

खैर वीर बहादुर भी स्टेशन पर मिला।
ट्रेन अपने समय पर चल दी। ठीक 8:10 पर

रविंदर घर से आलू की सब्जी अचार और पूड़ियाँ बनवा कर लाया था। दबा कर खाया। स्वादिष्ट भोजन और ऊपर से घूमने जाने की ख़ुशी। मज़ा दुगना हो गया।

मथुरा तक यूँ ही खाते पीते और मस्ती करते रहे।


उसके बाद नींद ने कब अपनी बाहों में समेट लिया पता ही नहीं चला। मेरी आँख सुबह 6 बजे खुली।

मैंने दोनों की सोते हुए फ़ोटो ली। और 6:30 पर जागे की फ्रेश हो लें वो।
7 बजे ट्रेन खजुराहो पहुँची। खजुराहो स्टेशन छोटा सा है। पर साफ़ सफाई और सुंदरता के मामले में दिल्ली से बहुत बड़ा

खजुराहो रेलवे स्टेशन से खजुराहो जहाँ western group of temples हैं की दूरी 8 kms है।
पहले मैंने यह सोचा था की यहीं स्टेशन पर फ्रेश होकर सीधा घूमने चला जाए। पर मेरे दोनों साथी बोले की रूम ले लिया जाय कहीं। मैंने कहा सोच लो थोड़ी देर। तब तक मैं कुछ फ़ोटो ले लेता हूँ।






खैर फोटोग्राफी के बाद भी फैसला कमरा लेने का हुआ। स्टेशन से बाहर निकले भी न थे की एक ऑटो वाले भाई साहब मिल गए। पूछने लगे की चलना है। मैं थोड़ा संकोच में था की टूरिस्ट्स वाला इलाका है जाने क्या पैसे माँग ले। अभी उस से बात हो ही रही थी की एक होटल वाला भी आ गया। हमें लगा को एजेंट होगा होटल का।
खैर ऑटो वाले भाई जिनका नाम शैलेन्द्र था ने 3 जनों के 60 रूपए मांगे 8 kms की दूरी के। कमाल है यार..इतना सस्ता तो दिल्ली में भी नहीं। ऑटो में हम तीन जनों के अलावा वो होटल वाला भी बैठ गया।
पूरे रास्ते बोलता रहा की होटल देख लो। न पसंद आये तो कोई बात नहीं।
खैर साहब होटल के बाहर ऑटो रुका। मैंने शैलेन्द्र ऑटो ड्राईवर को 60 रूपए दिए। उसने ख़ुशी ख़ुशी ले लिए। उसका मोबाइल नंबर भी ले लिया मैंने की कहीं जाना पड़े तो इन्हीं भाई को बुला लेंगे

कमरा देखा, अच्छा खासा बड़ा था। बिस्तर और टॉयलेट भी साफ़ सुथरे थे। 600 रूपए में बात तय हुई।
हमने सामान पटका और अपने अपने कोने पकड़ लिए। धीरे धीरे नहाने धोने का कार्यक्रम बना। नहाधोकर लगा की कमरा ठीक ही लिया।
9:30 के करीब बाहर निकले खजुराहो के पश्चिमी भाग वाले मंदिर होटल से 2 मिनट की पैदल दूरी पर थे। हम वहाँ पहुँचे।
10 रूपए प्रति जन के हिसाब से टिकट्स लीं।


प्रवेश किया। और बाईं तरफ से मंदिर देखने शुरू किये। अभी पहला मंदिर ही देखा जो की वराह अवतार का था, कि हमें समझ आ गया की यार गाइड होना चाहिए कोई जो इनके बारे में बताता रहे।

हमें पता चला की स्वचालित ऑडियो उपकरण मिल जाता है यहाँ। यदि आप गाइड न करना चाहें। उस ऑडियो उपकरण की भाषा जो आप चुनना चाहें वो रख लें और जिस स्थान पर जाएँ वहाँ की संख्या पर उपकरण के पटल जो की स्पर्श यानी टच स्क्रीन सुविधा वाला था बस टच करते ही उस स्थान के बारे में बताना शुरू कर देता था, pause repeat forward भी और कीमत मात्र 70 रूपए।

हमनें तीन लेने की सोची पर दो ही मिले क्योंकि तीसरे का हेडफ़ोन ख़राब था।
वैसे अच्छा हुआ 2 ही मिले।

खैर पश्चिमी भाग वाले मंदिर बहुत सुन्दर हैं। और भव्यता देखते ही बनती है। यदि आपको भी कोई ज्ञान न हो शिल्पकला का जैसे मुझे नहीं तब भी आप घंटों उन मंदिरों पर की गयी नक्काशी और मूर्ती कला को निहार सकते हैं।






कौन सा मंदिर कब बना और किसने बनवाया इसकी जानकारी यहाँ नहीं लिख रहा। वो जानकारी आपको कहीं भी मिल सकती है।
और मुझे इतना याद भी नहीं रखा जाता।
हर मंदिर की एक खास बात जो मैंने गौर किया वो यह है कि किसी भी मंदिर के मुख्य रूप से जो भी मूर्ती स्थापित है उसपर प्राकृतिक प्रकाश पड़ता रहता है। मने आप प्रवेश करेंगे तो पाएंगे की पूरे मंदिर में अँधेरा जैसा भी होगा तब भी गर्भगृह में स्थापित मूर्ती पर पूरा उजाला है जैसे कोई ख़ास उपकरण की सहायता से रौशनी बिखेरी गई है।




यह कोई चमत्कार नहीं, निमार्ण का उत्कृष्ट नमूना जानिये। बहुत उच्च स्तर के कारीगरी है।

हम सभी 11 बजे के करीब बाहर निकले।
सुबह नाश्ता नहीं किया था। जो की कर लेना चाहिए था।
खैर बाहर आकर परांठे खाये। थोड़ा बाज़ार में घूमे फिर सभी ने मन बनाया की पांडव गुफ़ा प्रपात घूम के आया जाए।

ऑटो ड्राईवर शैलेन्द्र को फ़ोन किया। उसने वाटर फॉल तक घुमा के लाने के लिए 600 रूपए बताये। मैंने कहा की दोस्तों से विचार करके बताता हूँ।

एक दो ऑटो वालों से पूछा पर 800 से कम किसी ने नहीं बताया।

वापस शैलेन्द्र को फ़ोन किया की भैया ऑटो लेकर आ जाओ।
वो बोला आता हूँ।

उसको खजुराहो संग्रहालय के सामने बुला लिया। और जब तक वो आये उस समय को हमने म्युज़ियम देखने में लगाया। हमने टिकट पता करनी चाही तो पता चला कि जो टिकट मंदिरों को देखने के लिए खरीदी थी 10 रूपए हर बन्दे के हिसाब से वही यहाँ भी काम करेगी।

शुक्र है रविंदर ने वो फेंकी नहीं थी।
खैर म्युज़ियम ज्यादा बड़ा नहीं था। 10 मिनट में देख डाला।
बाहर आये और शैलेन्द्र ऑटो लेकर इंतज़ार में था।

हम तीनों ऑटो में बैठ गए और पांडव गुफ़ा प्रपात का सफ़र शुरू हुआ।
हम सभी कहीं न कहीं सोच रहे थे की 600 रूपए बहुत ज्यादा हैं ऑटो के लिये। कम में बात बनती तो ठीक रहता।
खैर सफ़र लंबा था, मुख्य सड़क को नहीं चुना जो की हाईवे था जो पन्ना को जाता है, और निर्माण कार्य जोरों शोरों से चालू था पिछले कई सालों से जो आगे भी कई वर्षों तक जारी रहने का अनुमान है।
जोरों शोरों को समझिये
उस सड़क पर प्रत्येक वाहन को चलने के लिए जोर लगाना पड़ता था जरुरत से ज्यादा और वाहन कैसा भी हो सड़क पर शोर होना लाज़मी हो जाता है।

बड़े बड़े रोड़े डाले हुए हैं उस सड़क पर जिस से चलना या चलाना दोनों ही मुश्किल था।

पर ऑटो वाले भैया ने कहीं बीच का रास्ता जो की गाँवों के मध्य से होकर निकालता है को चुना
वीर, मैं, शैलेन्द्र ऑटो वाले और रविंदर (बाएं से दायें)

वैसे तो 35 या 40 kms का सफ़र है पर गाँव के बीच बीच से निकलते हुए सफ़र थोड़ा लंबा हो गया।

राजेन्द्र नगर के रास्ते से निकले हम। पांडव फॉल भोजपुर में पड़ता है, वहाँ तक पहुँचने के लिए हमें मुख्य सड़क तक आना पड़ा, जो की पन्ना टाइगर रिज़र्व के सामने से निकलती है।
उस सड़क पर आने के बाद ही उसके निर्माण के जोरशोर का पता चला और पता चला की ऑटो वाले भैया ने 600 रूपए कम ही मांगे।
सड़क खस्ताहाल, उस से बचने के लिए भाई ने गाँवों के बीच से निकाला ऑटो।

मात्र 4 kms का सफ़र ही किया था हमने उस जोरशोर वाली सड़क पर और शरीर का बाजा बज गया

हमें 2 घंटे से ज्यादा लगे पांडव प्रपात पहुँचने में।
वहाँ पहुँच कर टिकट ली। रिज़र्व का क्षेत्र होने के नाते उसके रखरखाव के लिए शुल्क लगाया गया है उस क्षेत्र में घूमने के लिए।

खैर साहब हम चल पड़े पैदल 600 मीटर के रास्ते पर। ऑटो बाहर ही खड़ा रहा। क्योंकि तिपहिया के 220 रूपए और देने पड़ते।
इसलिए हमने निर्णय किया की पैदल चला जाय जिससे पैसे बचें। दूरी भी 600 मीटर थी बस।
प्रपात और पांडव गुफा तक पहुँचने के लिए 294 के करीब सीढियां हैं। प्रपात की गहराई देख हम थोड़ा संकोच में पड़े की उतर जाएंगे पर वापसी में थक न जाएँ ज्यादा। 40 kms से ज्यादा का सफ़र ऑटो में करने के बाद हिम्मत थोड़ा सोचने पर मजबूर हो जाती है।

हम प्रपात में उतरे, वहाँ पहुँचने के बाद मैं बता नहीं सकता की कितनी असीम शाँति का अनुभव हुआ।
शब्द नहीं वहाँ की सुंदरता के बखान का। प्रपात से ज्यादा पानी तो नहीं निकल रहा था पर भव्यता देख अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जब पानी अपने पूरे वेग में आता होगा तो कैसा नज़ारा होता होगा।
एक सरोवर ठीक प्रपात के नीचे है, काफी बड़ा। उसका शांत ठहरा पानी ठहरने को मजबूर करता है। सरोवर के दाहिने तरफ पहाड़ी से पानी झरता रहता है, उनमें कई धार का रूप में भी गिरता है। उस धार में आप बोतल अड़ा दो तो 2 मिनट में भर जाए शुद्ध निर्मल मिनरल का पानी। उसका स्वाद अवर्णीय है।





50 मीटर के करीब का हिस्सा ऐसा है के नीचे खड़े हो जाने पर सारा भीग जाएँ। ठंडा पानी भावों की गर्मी उत्पन्न करने को काफी है। बस उसके नीचे से होकर गुजरने भर से शरीर और मन ताज़ा हो गए। हम तीनों दोस्त वहीँ बने एक चबूतरे पर आसमान के तरफ आँखें करके लेट गए।
ऊपर से बरगद या जाने कौन सी पेड़ की जटाएं लटकी हुई थीं जिनसे पानी टपकता रहता है।
थोड़ा उस पानी से बच कर लेटे।
ज्यादा देर आँखें खुली न रख पाये।






वहाँ का मनोहर वातावरण और पानी के झरने की मनभावन आवाज़ ने आँखें बंद कर दीं।
उसी अवस्था में बहुत देर तक लेटे रहे।
मन ही नहीं था की आँखें खोलें। मन थोड़ी देर के लिए विचारों से भागने लगा।
लगा जैसे नींद आ जायेगी

यात्रा से पहले की मंत्रणा....यानी मीटिंग



अक्टूबर का महीना प्रारम्भ होने से पहले ही घूमने वाले कीड़े (sleeper cells) जो मेरे अंदर हमेशा जागृत अवस्था में रहतें है बहुत तेजी से कुलबुलाने लगे थे, और अक्टूबर प्रारम्भ होते ही उन्होंने भयंकर अराजकता फैला दी, शरीर की लोकतान्त्रिक व्यवस्था लगभग चरमरा सी गई, मैंने तुरंत प्रभाव में आकर 4 अक्टूबर 2015 रविवार का दिन मुक़र्रर किया इस विषय अपने दिमाग से मंत्रणा हेतु।

खैर साहब 4 अक्टूबर 2015 को सुबह से ही पूरे शरीर में हलचल थी। जो सुबह के ढेर सारे नाश्ते के बाद भी शांत नहीं हुई।
नाश्ता डकार लेने के पश्चात् दिमाग को बुलाया और लंबे सोफे पर तकिया लगा कर लंबा हो गया।
और वैसे ही लंबवत रहते हुए दिमाग से मंत्रणा का आरम्भ हुआ।

मंत्रणा सुचारू रूप से चले इसीलिए हम दोनों बुद्धुओं मने मैं आउट दिमाग ने स्मार्टफ़ोन को भी बुला लिया।
स्मार्टफ़ोन के आने के बाद लगा की जैसे अब तक की मंत्रणा का कोई औचित्य नहीं था इसके बिना। खैर देर आये दुरुस्त आये वाला भाव लेकर मंत्रणा को आगे बढ़ाया।

घूमने को लेकर कई स्थान चर्चा में सम्मिलित किये गए।
त्रिवेंद्रम सबसे पहला रहा। स्मार्टफ़ोन ने बीच में टांग अड़ाते हुए बताया की वहाँ के लिए रेलवे विभाग की तरफ से आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कोई फौरी सहायता नहीं मिल पाएगी। और शारीरिक अराजकता जस की तस रहेगी।

दूसरी जगह कर्नाटक में हम्पी थी। इसपर फिर से स्मार्टफ़ोन ने अपनी बुद्धि को बड़ा साबित करते हुए 3 दिन जाने और 3 दिन आने में लगने वाले समय का रोना रोया और रेलवे विभाग वाले उपरोक्त असहयोग वाला कंटक हमारे पैरों में घुसा मारा।

अब तक दिमाग और मेरी दही बिलो चुका था स्मार्टफ़ोन।

वैसे बात उसकी भी सही थी। दोनों स्थान अच्छी खासी दूरी पर हैं और व्यवस्था में राजकीय घाटे के मद्देनज़र हवाई यात्रा की गुंजाईश अच्छे दिन जैसी थी। जो पता तो थी की होती है पर हो नहीं सकती थी।

दिमाग ने अचानक दिल की सहायता (जो की गुप्तरूप से मंत्रणा में शामिल था) से खजुराहो का नाम सुझाया।
स्मार्टफ़ोन ने मौका लपकते हुए खजुराहो आवन जावन की सभी जानकारियों को मेरे समक्ष रख दिया। ठीक किसी चापलूस अधिकारी की तरह।
और अंतः खजुराहो ही उचित स्थान जान पड़ा।

रेलवे आरक्षण उपलब्ध था। वो करने से पहले दिल ने यात्रा में एक साथी की दरकार की, जो कि बहुत कम करता है। और नाम सुझाया रविंदर प्रताप सिंह।

भांजा कम मित्र ज्यादा। उसको फ़ोन मिला कर उसकी सहमति जानी। और उसकी हामी के बाद रेलवे आरक्षण कर दिया गया।
आरक्षण के बाद दिल ने गरियाते हुए एक नाम और सुझाया वीर बहादुर सिंह।

दिमाग ने अपनी चाल चलते हुए कहा कि आरक्षण हो गया है। किन्तु दिल मजबूती से नाम दोहराता रहा।
और अंत में वीर बहादुर सिंह को स्मार्टफ़ोन ने संपर्क साध कर उनकी रजामंदी ले ली।

खजुराहो दिल्ली से दूरी के हिसाब से एक ऐसा स्थान है जिसे एक रात्रि रेल यात्रा में कवर किया जा सकता है।
जिस से कम यात्रा करने वाले मित्रों को भी बोरियत से बचाया जा सकता है।
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रख कर 16 अक्टूबर 2015 का आरक्षण किया गया।

उत्तर प्रदेश संपर्क क्रांति एक्सप्रेस (22448/ 22447) जो की प्रतिदिन दिल्ली से मानिकपुर और खजुराहो  के बीच चलती है। यह एक स्लिप ट्रेन है। जिसका मतलब यात्रा के दौरान समझ आया।

ये मानिकपुर जाती है किन्तु आधे डिब्बे महोबा स्टेशन से अलग हो जाते हैं। और आधी रेल वहाँ से खजुराहो मध्यप्रदेश की तरफ और आधी मानिकपुर की तरफ चली जाती है।
महोबा स्टेशन ही इनके बंटवारे का स्थान है।

तो सभी बातें तय हो गयी। साथ जाने वाले मित्र और 16 अक्टूबर 2015 को जाना और 18 अक्टूबर 2015 को वापसी।