अवलोकन
स्थान: कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन
दिनांक: 8 अक्टूबर 2015
समय: शाम 6:30 के आसपास
************************
दिल्ली शहर भी बहुत तेजी के साथ चलने की आदत डाल रहा है, कुछ लोग कह सकते हैं की बहुत फ़ास्ट है जी...
मेट्रो स्टेशन हो या सड़क हर तरफ अफ़रातफ़री सा माहौल देखने को मिल जाएगा।
कहीं कोई किसी के रास्ते में आने पर मुँह बना रहा है, कहीं किसी के कंधे टकराने से चलने में बाधा आ जाती है, कहीं किसी की टक्कर से किसी के हाथ से मोबाइल गिरते गिरते बचा, शुक्र है ज़िन्दगी बची वाला भाव चेहरे पर दिखता है, कहीं कोई मेरी धीमी गति की वजह से मुझे धकियाते हुए बुदबुदाता हुआ कि फुरसत में है बावला 😄
हर 2 मिनट में नहीं तो 5 या 7 मिनट में अगली मेट्रो आ जाती है सामान्यतः, पर सभी अजीब सी दौड़ का हिस्सा बने हुए से हैं।
यदि सुबह का समय हो तो समझ में आ सकता है कि हर किसी को अपने कार्यस्थल पहुँचने की जल्दी है पर शाम को भी यह आलम....उफ़्फ़ तौबा है
घर ही तो जाना है, कौन सी हाज़िरी लगानी है? पर नहीं कान में मोबाइल फ़ोन का लीड लगाए सभी डॉ से बदहवास फिरते हैं। अरे थोड़ा ठहर के चल लो भाई, शायद जीवन अच्छा सा सा लगने लगे, विराम दो, जल्दी काहे की?
घर भी जाकर तुम्हें बुद्धू बक्से (टेलीविज़न) के आगे बुद्धू ही बनना है।
पता नहीं शायद मैं ही जीवन में बहुत धीमा हूँ। खैर...
पागल मन की बातें
स्थान: कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन
दिनांक: 8 अक्टूबर 2015
समय: शाम 6:30 के आसपास
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दिल्ली शहर भी बहुत तेजी के साथ चलने की आदत डाल रहा है, कुछ लोग कह सकते हैं की बहुत फ़ास्ट है जी...
मेट्रो स्टेशन हो या सड़क हर तरफ अफ़रातफ़री सा माहौल देखने को मिल जाएगा।
कहीं कोई किसी के रास्ते में आने पर मुँह बना रहा है, कहीं किसी के कंधे टकराने से चलने में बाधा आ जाती है, कहीं किसी की टक्कर से किसी के हाथ से मोबाइल गिरते गिरते बचा, शुक्र है ज़िन्दगी बची वाला भाव चेहरे पर दिखता है, कहीं कोई मेरी धीमी गति की वजह से मुझे धकियाते हुए बुदबुदाता हुआ कि फुरसत में है बावला 😄
हर 2 मिनट में नहीं तो 5 या 7 मिनट में अगली मेट्रो आ जाती है सामान्यतः, पर सभी अजीब सी दौड़ का हिस्सा बने हुए से हैं।
यदि सुबह का समय हो तो समझ में आ सकता है कि हर किसी को अपने कार्यस्थल पहुँचने की जल्दी है पर शाम को भी यह आलम....उफ़्फ़ तौबा है
घर ही तो जाना है, कौन सी हाज़िरी लगानी है? पर नहीं कान में मोबाइल फ़ोन का लीड लगाए सभी डॉ से बदहवास फिरते हैं। अरे थोड़ा ठहर के चल लो भाई, शायद जीवन अच्छा सा सा लगने लगे, विराम दो, जल्दी काहे की?
घर भी जाकर तुम्हें बुद्धू बक्से (टेलीविज़न) के आगे बुद्धू ही बनना है।
पता नहीं शायद मैं ही जीवन में बहुत धीमा हूँ। खैर...
पागल मन की बातें
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