अफ़सोस:
4 अक्टूबर 2015, शाम का वक़्त
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आर के पुरम अपने घर जाने के लिए दिलशाद गार्डन मेट्रो स्टेशन से मेट्रो ली, हमेशा की तरह अंतिम कोच के अंतिम से पहले वाले दरवाज़े से प्रवेश करके बाईं तरफ की दो सीटें जो वृद्ध और विक्लांगों के लिए आरक्षित होती हैं उनसे एक सीट हट कर मैं बैठ गया।
बैठने पर एक विचार हमेशा की तरह मेरे स्वार्थी मन में आया की कोई मुझसे ज्यादा जरूरतमंद (सीट के लिए) मेरी नज़रों के सामने न आये। वरना एक बड़े परिवार के सबसे छोटे सदस्य और प्यारी सी बिटिया के बाप का बावला मन उसको सीट दे देगा। पर नियति ने अपना खेल खेला। मेरी दाहिनी तरफ जो आरक्षित सीटें थी उसमें से एक पर एक 14 या 15 साल की लड़की अपने 1 साल के भाई को गोद में लेकर बैठी थी और वो दुनिया की चालबाजियों से बेखबर सो रहा था। उसकी माँ शायद विकलांग और वृद्ध श्रेणी के आरक्षण के चलते नहीं बैठी थी। बस अपनी बिटिया को बिठा दिया कि छोटा बालक उसकी गोद में चैन से सो पायेगा। महिला की उम्र 35 के आसपास रही होगी।
खैर तभी एक 50 के अंदर उम्र वाली महिला शाहदरा स्टेशन पर मेरे ठीक सामने आकर खड़ी हो गई। एक बची आरक्षित सीट भी घिर चुकी थी।
वो महिला ऐसे मुँह बना रही थी जैसे 65 साल की आयू वाले व्यक्ति को खड़े होने में दिक्कत होती है। मन बावला पसीजा और मैं खड़ा हो गया की आंटी जी बैठ जाओ।
बैठते ही उसने अपने उन सभी संसाधनों को ठीक किया जिनसे उसकी उम्र का हिसाब लोगों को धोका दे सके।
फिर उसकी विस्तारवादी नीति का खुलासा हुआ। उसने आवाज़ लगाईं अपनी बिटिया को जो की नवविवाहिता जान पड़ी। मेरे बगल में जो सज्जन थे वो भी उसकी बिटिया के लिए खड़े हो गए।
अब एक महिला और जो उन्हीं के साथ थी उम्र 40 के नीचे वो भी अवतरित हुई। जिस 50 के लपेटे वाली महिला को मैंने सीट दी थी उसने मेरी दाहिनी तरफ बैठी उस 14 या 15 साल की बच्ची जो अपने 1 साल वाले भाई को गोद में सुलाये संभाले बैठी थी को धकियाना शुरू किया और एडजस्ट करने को कहा उस 40 साल वाली महिला के लिए।
सोते हुए बच्चे की माँ ने जो खड़ी ये सब देख रही थी ने विनम्रता से कहा की बच्चा सो रहा है ज़रा ध्यान से।
उस 50 साल के लपेटे वाली महिला ने अपना भद्दा मुँह खोला और बोली "क्या हुआ जो बच्चा है थोड़ा दब ले"
मैं बता नहीं सकता की कितना अफ़सोस हुआ। मन में आया की कहूँ कि आंटी एक छोटे बच्चे के लिए इतनी संवेदनहीनता, और ऐसे शब्द का प्रयोग करके आपने मुझे अफ़सोस करने पर मजबूर कर दिया की आप जैसे को सीट क्यों दी......
पर कुछ कह न सका दिल्ली का यह आम व्यक्ति वो भी पुरुष। शुक्र है ISBT आ गया तब तक, और इंटरचेंज के लिए मैं उतर गया वरना न जाने कब तक अफ़सोस और आत्मग्लानि होती.....
पागल मन की बातें
4 अक्टूबर 2015, शाम का वक़्त
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आर के पुरम अपने घर जाने के लिए दिलशाद गार्डन मेट्रो स्टेशन से मेट्रो ली, हमेशा की तरह अंतिम कोच के अंतिम से पहले वाले दरवाज़े से प्रवेश करके बाईं तरफ की दो सीटें जो वृद्ध और विक्लांगों के लिए आरक्षित होती हैं उनसे एक सीट हट कर मैं बैठ गया।
बैठने पर एक विचार हमेशा की तरह मेरे स्वार्थी मन में आया की कोई मुझसे ज्यादा जरूरतमंद (सीट के लिए) मेरी नज़रों के सामने न आये। वरना एक बड़े परिवार के सबसे छोटे सदस्य और प्यारी सी बिटिया के बाप का बावला मन उसको सीट दे देगा। पर नियति ने अपना खेल खेला। मेरी दाहिनी तरफ जो आरक्षित सीटें थी उसमें से एक पर एक 14 या 15 साल की लड़की अपने 1 साल के भाई को गोद में लेकर बैठी थी और वो दुनिया की चालबाजियों से बेखबर सो रहा था। उसकी माँ शायद विकलांग और वृद्ध श्रेणी के आरक्षण के चलते नहीं बैठी थी। बस अपनी बिटिया को बिठा दिया कि छोटा बालक उसकी गोद में चैन से सो पायेगा। महिला की उम्र 35 के आसपास रही होगी।
खैर तभी एक 50 के अंदर उम्र वाली महिला शाहदरा स्टेशन पर मेरे ठीक सामने आकर खड़ी हो गई। एक बची आरक्षित सीट भी घिर चुकी थी।
वो महिला ऐसे मुँह बना रही थी जैसे 65 साल की आयू वाले व्यक्ति को खड़े होने में दिक्कत होती है। मन बावला पसीजा और मैं खड़ा हो गया की आंटी जी बैठ जाओ।
बैठते ही उसने अपने उन सभी संसाधनों को ठीक किया जिनसे उसकी उम्र का हिसाब लोगों को धोका दे सके।
फिर उसकी विस्तारवादी नीति का खुलासा हुआ। उसने आवाज़ लगाईं अपनी बिटिया को जो की नवविवाहिता जान पड़ी। मेरे बगल में जो सज्जन थे वो भी उसकी बिटिया के लिए खड़े हो गए।
अब एक महिला और जो उन्हीं के साथ थी उम्र 40 के नीचे वो भी अवतरित हुई। जिस 50 के लपेटे वाली महिला को मैंने सीट दी थी उसने मेरी दाहिनी तरफ बैठी उस 14 या 15 साल की बच्ची जो अपने 1 साल वाले भाई को गोद में सुलाये संभाले बैठी थी को धकियाना शुरू किया और एडजस्ट करने को कहा उस 40 साल वाली महिला के लिए।
सोते हुए बच्चे की माँ ने जो खड़ी ये सब देख रही थी ने विनम्रता से कहा की बच्चा सो रहा है ज़रा ध्यान से।
उस 50 साल के लपेटे वाली महिला ने अपना भद्दा मुँह खोला और बोली "क्या हुआ जो बच्चा है थोड़ा दब ले"
मैं बता नहीं सकता की कितना अफ़सोस हुआ। मन में आया की कहूँ कि आंटी एक छोटे बच्चे के लिए इतनी संवेदनहीनता, और ऐसे शब्द का प्रयोग करके आपने मुझे अफ़सोस करने पर मजबूर कर दिया की आप जैसे को सीट क्यों दी......
पर कुछ कह न सका दिल्ली का यह आम व्यक्ति वो भी पुरुष। शुक्र है ISBT आ गया तब तक, और इंटरचेंज के लिए मैं उतर गया वरना न जाने कब तक अफ़सोस और आत्मग्लानि होती.....
पागल मन की बातें
Good observation. Many people misuse the respect given to them.
ReplyDeleteधन्यवाद सिद्धार्थ जी, मन दुःखता है। खैर यही संसार है
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